लाओत्से एक महान दार्शनिक
चीन के सामन्तशाही युग का महान दार्शनिक लाओत्से था। इनका जन्म 601 ई.पू. में चू राज्य में हुआ था। वह राज्य की पुस्तकालय का सरंक्षक था। उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र देकर किसी गाँव मे शांतिपूर्ण तरीके से जीवन व्यतीत करने लगा।
लाओत्से का शाब्दिक अर्थ ‘प्राचीन शिक्षक’ है। परन्तु लाओत्से का मूल नाम “ली” (Li) था। उसने जिस धर्म का प्रचार किया वह ताओ धर्म (Taoism) है।
* ताओ सिद्धान्त के अनुसार प्रकृति अपने नियम का पालन करती है। मौसम अपने समय से आते-जाते हैं। यह एक शाश्वत नियम है और मानव-जीवन इसी तरह नियमित होना चाहिए। लाओ त्से का कहना है कि ज्ञानी व्यक्ति को भौतिकवादी सभ्यता से दूर रहना चाहिए।
उन्हें बाहर से, पुस्तकों से तथा सुधारवादियों से दूर रहना चाहिए और प्रकृति की गोद में लौट जाना चाहिए। उन्हें प्राकृतिक नियमों को चुपचाप मान लेना चाहिए।
** लाओत्से के उपदेश इस प्रकार हैं :
(क) प्राकृतिक नियमों का विरोध करना उचित नहीं है।
(ख) सबको उचित ढंग से अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।
(ग) धैर्य और शांति से विजय प्राप्ति की चेष्टा करनी चाहिए।
(घ) तुम अगर किसी का उपकार नहीं करते हो तो तुम्हारा भी कोई उपकार नहीं करेगा।
(ङ) जो तुम्हारी हानि करे उसे दया के वर्ताव से पूरा करो।
(च) कठोरता के साथ जब कोमलता टकराती है तो कोमलता की विजय होती है ।
(छ) जल सबसे निर्बल है, परन्तु चट्टान को भी तोड़ देता है।
(ज) शांति ही बुद्धि की शुरुआत है।
(झ) सच्चे शब्द सुंदर नहीं लगते, सुंदर शब्द सच्चे नहीं लगते। अच्छे शब्द प्रेरक नहीं लगते और प्रेरक शब्द अच्छे नहीं लगते।
(ञ) कोई भी चीज पानी से ज्यादा नर्म और लचीली नहीं हो सकती, फिर भी कोई भी ताकत पानी को रोक नहीं सकती।
(ट) अगर आप दिशा नहीं बदलते, तो शायद आप वहीँ पहुँच जाएंगे जिधर आप बढ़ रहे हैं।
(ठ) जो दुसरो पर नियंत्रण करता है वह शक्तिशाली होता है, लेकिन जो खुद पर नियंत्रण करता है वह ज्यादा ताकतवर होता है।
‘लाओत्से का कहना है कि बुद्धिमान व्यक्ति दुनिया में

ऊँचा अधिकार प्राप्त करने योग्य है, तथापि वह चूपचाप, सरल और शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करता है। पचास वर्ष की उम्र में व्यक्ति को ज्ञान की शक्ति और बुद्धि की कमजोरी मालूम हो जाती है। वह धन-दौलत एवं शक्ति को कोई महत्त्व नहीं देता। परवर्ती युग में चीनी समाज पर लाओत्से के सिद्धान्त का गहरा प्रभाव पड़ा।
इस प्रकार, ताओवाद एक रहस्यवादी दर्शन था। लाओ त्से ने इसका प्रतिपादन अपने।प्रसिद्ध ग्रंथ “ताओ ले चिंग” अर्थात् ‘श्रेय मार्ग’ (The Way of Virtue) में किया है। इसमें प्रकृति दर्शन के वास्तविक स्वरूप का वर्णन है।