मिट्टियाँ की विशेषताएँ और भारतीय मिट्टी
मिट्टी से ही मनुष्य की तीनों मूलभूत आवश्यकताओं- भोजन, वस्त्र और मकान की आपूर्ति होती है। इसीलिये इसे सम्पूर्ण मानव जाति के लिये प्रकृति का एक बहुमूल्य वरदान माना जाता है।

अमरीकी मृदा विशेषज्ञ डॉ. बैनेट के अनुसार, “मिट्टी भू-पृष्ठ पर मिलने वाले असंगठित पदार्थों की वह ऊपरी पर्त है जो मूल चट्टानों के विखण्डन तथा वनस्पति के सड़े-गले अंश ‘ह्यमस’ के योग से बनती है।” वस्तुतः विखण्डन एवं क्षयीकरण की शक्तियों के प्रभाव के फलस्वरूप धरातलीय चट्टानों में निरन्तर टूट-फूट होती रहती है जिससे चट्टानें क्रमश: बारीक शैल चूर्ण में परिवर्तित होती रहती हैं । यही शैल चूर्ण वनस्पति के सड़े-गले अंश के साथ मिलकर मिट्टी का निर्माण करता है । मिट्टी में अनेक प्रकार के रासायनिक तत्व भी मिले रहते हैं।

मिट्टी में अधिक मात्रा में रहने वाले तत्त्व निम्नलिखित है।
1.नाइट्रोजन, (2).पोटैशियम, (3) फॉस्फोरस, (4) कैल्सियम, (5) मैग्नीशियम, (6) सोडियम, (7) कार्बन, (8) ऑक्सीजन और (9) हाइड्रोजन।
न्यून अथार्त कम मात्रा में रहनेवाले तत्व निम्नलिखित है।
(1) लौहा, (2) गंधक, (3) सिलिका, (4) क्लोरीन (5) मैंगनीज, (6) जस्ता, (7) निकल, (8) कोबल्ट (9) मोलिब्डेनम, (10) ताम्र, (11) बोरन तथा (13) सैलिनियम हैं।
भारतीय मिट्टियों की विशेषताएँ
(FEATURES OF INDIAN SOILS)
अपनी रचना में भारतीय मिट्टियाँ अन्य देशों की मिट्टियों से भिन्न हैं क्योंकि ये बहुत पुरानी और पूर्णतः परिपक्व हैं। भारत की अधिकांश मिट्टियाँ प्राचीन जलोढ़ मिट्टियाँ हैं जो न केवल पैतृक चट्टानों के विखण्डन से ही बनी हैं, वरन् उनके निर्माण में जलवायु सम्बन्धी कारणों एवं जल परिवहन का भी हाथ रहा हैै। प्रायः सभी मिट्टियों में नेत्रजन, जीवांश, वनस्पति अंश और खनिज लवणों की कमी पायी जाती है । मिट्टियों के तापमान ऊँचे पाए जाते हैं। शीतोष्ण कटिबन्धीय मिट्टियों की तुलना में यह 10° सें. से 15° सें. अधिक होते हैं। इससे चट्टानों के टूटने आरम्भ हो जाता है। पठारी एवं पहाड़ी भाग में मिट्टी का आवरण हल्का व छितराया हुआ होता है जबकि मैदानी और डेल्टाई प्रदेशों में यह गहरा और संगठित होता है। निरन्तर खेती किये जाने से भारतीय मिट्टियों की उर्वरा शक्ति के नष्ट होने के साथ-साथ उनका अपरदन भी होता जा रहा है।
भारत जैसे विशाल देश में अनेक प्रकार की मिट्टियाँ पाई जाती हैं। विभिन्न भारतीय एवं विदेशी विद्वानों एवं मृदाशास्त्रियों ने अपने-अपने ढंग से मिट्टी के रंग-रूप, संरचना, उर्वराशक्ति एवं क्षेत्रीय वितरण आदि के आधार पर देश की मिट्टियों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है।
भारतीय कृषि अनुसन्धानशाला के कृषि-विशेषज्ञ राय चौधरी और मुखर्जी ने भारतीय मिट्टियों को निम्न श्रेणियों में वर्गीकृत किया है :
1) नदियों द्वारा लायी गयी मिट्टी,
(2) नदियों द्वारा लायी गई वह मिट्टी जिसमें खनिज नमक भी मिले रहते हैं,
(3) तटीय प्रदेशों की बलुहो मिट्टी जो नदियों द्वारा लायी गयी है,
(4) नदी की तलहटियों की पुरानी मिट्टी, (5) डेल्टा प्रदेश की नमकीन मिट्टी,
(6) चूना मिली हुई मिट्टी,
(7) गहरी काली मिट्टी,
(8) मध्यम काली मिट्टी,
(9) छिछली चिकनी दोमट मिट्टी,
(10) लाल एवं काली मिट्टी का मिश्रण,
(11) लाल दोमट मिट्टी,
(12) लाल बलुही मिट्टी,
(13) मिश्रित लाल दोमट बलुही मिट्टी,
(14) कंकरीली मिट्टी,
(15) तराई की मिट्टी,
(16) पहाड़ों की मिट्टी,
(17) दलदली मिट्टी,
(18) पीट मिट्टी और
(19) मरुस्थली मिट्टी।
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चद्टानों के आधार पर भारतीय मिट्टियों का विभाजन (Classification of Indian Soils on the Basis of Rocks)
किसी स्थान की मिट्टी में उन पेतृक चट्टानों के गुण पाए जाते हैं जिनसे इसकी उत्पत्ति हुई है। अतः भारतीय विद्वानों ने विभिन्न चट्टानों को भारतीय मिट्टियों का मूलाधार माना है। उनके अनुसार भारतीय मिट्टियों की उत्पत्ति निम्न प्रकार की चट्टानों से हुई है :
(1) अति प्राचीनकाल की रखेदार और परिवर्तित चट्टानें जो अधिकांशत: भारत के पठारी भाग पर पायी जाती हैं; जैसे-ग्रेनाइट, नीस, रवेदार शिस्ट आदि । इनमें लोहे और मैंगनीज के कण पर्याप्त मात्रा में मिले रहने से इनका रंग लाल होता है। प्रीष्मकाल में केशाकर्षण छिद्रों द्वारा लोहा ऊपर आ जाता है।
(2) कुडुप्पा और विन्ध्य युग की चट्टानें बहुत पुरानी होने के कारण पूर्णत: परिपक्व हो चुकी हैं अत: इनसे
बनने वाली मिट्टी भी पूर्णावस्था को प्राप्त कर चुकी है । इन चट्टानों से बारीक बलुही और अधिक क्षारीय मिट्टियाँ बनती हैं जो कम उपजाऊ होती हैं।
3) गोंडवाना काल की चट्टानें भारतीय प्रायद्वीप में मुख्यतः नदियों की घाटियों और प्राचीनकाल के छिछले जल अवशेषों में मिलती हैं। इन चट्टानों से बनी मिट्टी रवेदार और अनुपजाऊ होती है । सामान्यतः ये मिट्टियाँ पतली तह वाली और क्षारयुक्त होती हैं जिनमें ह्ममस की मात्रा कम होती है।
(4) दकन ट्रैप प्राचीनकाल में हुए ज्वालामुखी उद्गार से निसृत लावा के प्रायद्वीपीय पठार के एक बड़े भाग पर निक्षेपित हो जाने से बनी है । इसमें लोहे तथा मैंगनीज के अंश अधिक पाये जाने से यह काले रंग की तथा अधिक उपजाऊ होती है।
(5) प्रायद्वीप के बाहरी भागों में टर्शरी और मध्य-जीव युग में बनी चट्टानें मुख्यतः पहाड़ियों के
ऊपरी भागों और नदियों की घाटियों में बिखरे रूप में मिलती हैं । इनसे अधिकतर चूनामय एवं बलुही मिट्टियाँ बनी हैं।
(6) अवसादी मिट्टियाँ अपने उत्पत्ति स्थल से काफी दूर प्रवाहित होकर अन्यत्र जमा होती रहती हैं। इनमें अवसादी चट्टानों के महीन कण होते हैं। देश के विस्तृत भू-भाग में यही मिट्टियाँ पाई जाती हैं। यह विशेष उपजाऊ मिट्टियाँ हैं।
■■ भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (दिल्ली) के द्वारा भारत की मिट्टियों को निम्न रूप में वर्गीकृत किया गया है।
(1) लाल मिट्टी,(2) काली मिट्टी, (3) लैटेराइट मिट्टी, (4) क्षारयुक्त मिट्टी, (5) हल्की काली एवं दलदली
मिट्टी, (6) कांप मिट्टी, (7) रेतीली मिट्टी और (8) वनों वाली मिट्टी ।